सूर्य देव को समर्पित यह मंदिर बिहार प्रांत के औरंगाबाद जिले में स्थित है। यह मंदिर बहुत ही अनोखा है। जिसके द्वार पूर्व की बजाय पश्चिम की ओर है। जहां पर सात रथों पर सवार भगवान सूर्यदेव के तीन स्वरूप के दर्शन होते हैं। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, इस सूर्य इस मंदिर का निर्माण स्वयं भगवान विश्वकर्मा ने एक रात में किया था। मंदिर का गेट एक रात में अपने आप दूसरी दिशा की ओर बदल गया था।
‘देवार्क मंदिर’ नाम से भी प्रसिद्ध यह मंदिर अपनी अनूठी शिल्पकला के लिए भी जाना जाता है। पत्थरों को तराश कर बनाए गए इस मंदिर की नक्काशी उत्कृष्ट शिल्प कला का नमूना है। इतिहासकार इस मंदिर के निर्माण का काल छठी – 8वीं सदी के मध्य होने का अनुमान लगाते हैं जबकि अलग-अलग पौराणिक विवरणों पर आधारित मान्यताएँ और जनश्रुतियाँ इसे त्रेता युगीन अथवा द्वापर युग के मध्यकाल में निर्मित बताती हैं। मंदिर के बाहर लगे एक शिलालेख पर ब्राह्मी लिपि में एक श्लोक लिखा है, जिसके मुताबिक इस मंदिर का निर्माण 12 लाख 16 हजार वर्ष पहले त्रेता युग में हुआ था। शिलालेख से पता चलता है कि अब इस पौराणिक मंदिर के निर्माण को 1 लाख 50 हजार 19 वर्ष पूरे हो गए हैं।
मंदिर में सामान्य रूप से वर्ष भर श्रद्धालु पूजा हेतु आते रहते हैं। हालाँकि, यहाँ बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश में विशेष तौर पर मनाये जाने वाले छठ पर्व के अवसर पर भारी भीड़ उमड़ती है। यहाँ लगभग प्रत्येक दिन श्रद्धालु के भीड़ का जमावड़ा लगा होता है पर खास कर रविवार को यहाँ दूर दूर से हवन और पूजन करने हेतु श्रद्धालु आते रहते हैं। मान्यता है की आज तक इस मंदिर से कोई भी याचक खाली हाथ नहीं लौटा और अपने मनोवांछित फल की प्राप्ति करने के तत्पश्चात वो यहाँ की कार्तिक या चैत्र के छठ पूजा में सूर्य देव को अर्घ भी समर्पण करते हैं।