मुख्य चार धामों में से एक धाम का दर्जा प्राप्त यह मंदिर उत्तराखंड प्रांत के चमोली जिले के बद्रीनाथपुरी क्षेत्र में स्थित है। यह मंदिर अलकनंदा नदी के बायें तट पर स्थित होते हुए नर और नारायण नाम की 2 पर्वत श्रेणियों से घिरा है। इस मंदिर का इतिहास चारों युगों से संबंधित है। सतयुग में इसे ‘मुक्ति प्रदा’ नाम से, त्रेता युग में ‘योग सिद्ध’, द्वापर में ‘मणिभद्र आश्रम’ और कलयुग में ‘बद्रिकाश्रम’ अथवा ‘बद्रीनाथ’ के नाम से जाना जाता है।
बद्रीनाथ नाम के पीछे एक पौराणिक कथा है। इस कथानुसार, देवर्षि नारद ने माता लक्ष्मी को भगवान विष्णु के चरण दबाते देख लिया। अपराधबोध से ग्रसित भगवान विष्णु तपस्या के लिए हिमालय चल दिये। तपस्या में लीन भगवान विष्णु हिम (बर्फ) में डूबने लगे। तब उन्हें हिमपात से बचाये रखने के लिए माता लक्ष्मी बद्री (बेर) पेड़ का रूप धर हिमपात को स्वयं सहती रहीं। धूप, वर्षा और हिमपात से रक्षा करते हुए कई वर्ष बीत गए। तपस्या पूरी होने पर विष्णु ने देखा कि लक्ष्मी पूरी तरह हिम में डूब चुकी हैं। इस समर्पण को देख विष्णु ने कहा देवी तुमने बद्री रूप धर तपस्या में मेरा साथ दिया है तो अब ये स्थान बद्री के नाथ ‘बद्रीनाथ’ नाम से जाना जायेगा।
मंदिर में भगवान विष्णु की 1 मीटर की शालिग्राम से निर्मित प्रतिमा है। मान्यता है, इस प्रतिमा को आदि शंकराचार्य ने नारद कुंड से निकाल कर पुनः स्थापित किया, जिसे बौद्धों ने कालांतर में नारद कुंड में फेंक दिया था। बद्रीनाथ में एक कहावत बहुत प्रचलित है कि “जो जाये बदरी, वो ना आये ओदरी”, अर्थात जो एक बार बद्रीनाथ के दर्शन कर लेता है उसे फिर उदर (गर्भ) में नहीं आना पड़ता। मतलब, उसका फिर दोबारा जन्म नहीं होता और वो जन्म मरण के चक्र से छुटकारा पा लेता है। शास्त्रानुसार, मनुष्य को अपने जीवन काल में कम से कम दो बार बद्रीनाथ धाम के दर्शन अवश्य ही करने चाहिए।