शक्तिपीठ – देवी पाटन मंदिर, बलरामपुर

शक्तिपीठ – देवी पाटन मंदिर, बलरामपुर

मां भगवती को समर्पित 51 शक्तिपीठों में से एक यह शक्ति पीठ भारत के उत्तरप्रदेश प्रांत के बलरामपुर जिले के तुलसीपुर शहर में स्थित है। बलरामपुर जिला मुख्यालय से 28 किलोमीटर दूर तुलसीपुर क्षेत्र में स्थित देवीपाटन शक्तिपीठ को “मां पाटेश्वरी का मंदिर” नाम से भी जाना जाता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार, इस शक्तिपीठ का सीधा संबंध देवी सती, भगवान शिव, दानवीर कर्ण और पीठाधीश्वर गुरु गोरक्षनाथ जी महराज से है। यह शक्तिपीठ सभी धर्म, जातियों के आस्था का केंद्र है। मां पाटेश्वरी के दर्शन के लिए यहां देश-विदेश से श्रृद्धालुओं का तांता लगा रहता है। ऐसी मान्यता है कि माता के दरबार में मांगी गई हर मुराद पूर्ण होती है।

पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, भगवान विष्णु द्वारा अपने सुदर्शन से देवी सती के शव विच्छेदन के बाद देवी सती के शरीर के भाग जहां-जहां गिरे, वहां-वहां शक्तिपीठों की स्थापना हुई। बलरामपुर जिले के तुलसीपुर क्षेत्र में ही देवी सती का वाम स्कंध के साथ पट गिरा था। इसीलिए इस शक्तिपीठ का नाम पाटन पड़ा और यहां विराजमान देवी को मां पाटेश्वरी के नाम से जाना जाता है। नवरात्रि के दिनों में है मां पाटेश्वरी की विशेष पूजा अर्चना होती है। नवरात्रि के 9 दिन माता की पिंडी के पास चावल की ढेरी बनाकर माता का विशेष पूजन किया जाता है और बाद में उसी चावल को भक्तों में वितरित कर दिया जाता है। रविवार के दिन माता को हलवे का भोग लगाया जाता है। शनिवार के दिन माता को आटे व गुण से बना रोट का विशेष भोग लगाया जाता है। नवरात्रि के दिनों में 5 से 6 लाख श्रद्धालुओं की भीड़ आती है। उन सभी भक्तों की सुरक्षा दृष्टि से मंदिर में खासे इंतेज़ाम किए जाते हैं।

पौराणिक मान्यतानुसार, मां पाटेश्वरी के परम भक्त और सिद्ध महात्मा श्री रतननाथ जी महराज अपनी सिद्ध शक्तियों की सहायता से एक ही समय में नेपाल राष्ट्र के दांग चौखड़ा व देवीपाटन में विराजमान मां पाटेश्वरी की एक साथ पूजा किया करते थे। उनकी तपस्या व पूजा से प्रसन्न होकर मां पाटेश्वरी ने उन्हें वरदान दिया कि मेरे साथ अब आपकी भी पूजा होगी, लेकिन अब आपको यहां आने की आवश्यकता नहीं होगी। अब आपकी सवारी आएगी। तभी से भारत के पड़ोसी राष्ट्र नेपाल से शक्तिपीठ देवीपाटन रतननाथ जी महाराज की सवारी आती है। रतननाथ जी की सवारी चैत्र नवरात्रि में द्वितीया के दिन देवीपाटन के लिए प्रस्थान करती है, जो पंचमी के दिन देवीपाटन पहुंचकर अपना स्थान ग्रहण करती है और नवमी तक यहीं विराजमान रहती है। तत्पश्चात नवमी की मध्य रात्रि को यह सवारी पुनः नेपाल राष्ट्र के लिए प्रस्थान करती है।

पौराणिक कथाओं के अनुसार, भगवान शंकर के अवतार मानें जानें वाले गुरु गोरक्षनाथ जी महराज ने त्रेता युग में मां पाटेश्वरी को प्रसन्न करने हेतु तपस्या की थी और एक अखण्ड धूना प्रज्जवलित किया था, जो त्रेतायुग से आज वर्तमान समय में अनवरत रूप से जल रहा है। मंदिर के नियमानुसार, गर्भ गृह में सिर पर बिना कपड़ा रखे कोई भी श्रद्धालु प्रवेश नहीं कर सकता है। मान्यतानुसार, मंदिर की भभूति एक दिव्य औषधि की तरह काम करती है। इस भभूति के स्पर्श मात्र से हो लोगों की पीड़ा क्षण भर में खत्म हो जाती है। जिस कारण यहां की राख (भभूति) को लोग अपने घर ले जाते हैं।

देवीपाटन मंदिर (Devipatan Temple) परिसर में ही उत्तर की तरफ एक विशाल सूर्यकुण्ड है। ऐसी मान्यता है कि महाभारत काल में दानवीर कर्ण ने यहीं पर स्नान किया था और सूर्य भगवान को अर्घ दिया था। तभी से इस कुण्ड को सूर्यकुण्ड के नाम से जाना जाता है। मां पाटेश्वरी को प्रसन्न करने हेतु उनके द्वार पर नर्तकी का नृत्य और गायन भी अपना एक अलग महत्व रखता है। मां पाटेश्वरी के दरबार में दर्जनों नर्तकी स्वेछा से पौराणिक गायन व नृत्य करती हैं। नर्तकियों के नृत्य से मां प्रसन्न होती हैं।