श्री डुल्या मारुति मंदिर, गणेशपेठ: प्रभु श्रीराम के अनन्य भक्त हनुमान जी को समर्पित यह मंदिर भारत के महाराष्ट्र प्रांत के पुणे शहर के गणेशपेठ में स्थित है। डुल्या मारुति मंदिर सन् 1600 के आस-पास का बताया जाता है। मंदिर की विशेषता है कि संपूर्ण मंदिर पत्थर का बना हुआ है। तथा हनुमान जी का मूल विग्रह एक काले पत्थर से निर्मित है। यह मूर्ति पश्चिम मुखी है जो 5 फुट ऊंची तथा 3 फुट चौड़ी है। हनुमानजी की इस मूर्ति के पास नवग्रह स्थापित हैं। मान्यतानुसार, इस मूर्ति की स्थापना छत्रपति शिवाजी महाराज के गुरु श्रीसमर्थ रामदास स्वामी ने की थी। सभा मंडप में द्वार के ठीक सामने छत से एक पीतल का घंटा टंगा है। जिसके ऊपर शक संवत् 1700 अंकित है, जो मंदिर के पौराणिक होने की पुष्टि करता है।
मंदिर के इतिहास के अनुसार, समर्थ रामदास का मूल नाम नारायण सूर्याजीपंत कुलकर्णी (ठोसर) था। इनका जन्म महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिसे के जंब नामक स्थान पर रामनवमी के दिन दोपहर में ब्राह्मण परिवार में शके 1530 सन 1608 में हुआ था। इनके पिता का नाम सूर्याजी पंत था। कहा जाता है कि इनके कुल में 21 पीढ़ी से सूर्योपासना की परंपरा चली आ रही थी। यही कारण था कि इनके पिता और खुद समर्थ रामदास जी सूर्य के बहुक बड़े उपासक थे। पुणे का शहरीकरण होने के कारण, आज डुल्या मारुति मंदिर (Shri Dulya Maruti Temple) लक्ष्मी रोड और जगताप रोड को मिलाने वाले चौराहे पर स्थित है। मंदिर से 20 कदम दूर श्री सिद्धिविनायक मंदिर स्थित है।
समर्थ रामदास ने उतर भारत में मथुरा, द्वारका व बनारस में मठों की स्थापना की। उनके अयोध्या मठ के मुखिया विश्वनाथजी ब्रह्मचारी थे, जिन्होंने औरंगजेब के समय हुए राम जन्मभूमि संघर्ष में प्राण न्यौछावर किए। देशाटन पूर्ण कर समर्थ महाराष्ट्र लौटे (1644)। उन्होंने महाराष्ट्र में कई मठ बनाए। योग्य व्यक्तियों को मठाधीश बनाया, यहाँ तक कि परंपरा को भंग कर उन्होंने विधवाओं को भी मठाधीश बनाया! समर्थ रामदास जी नें 350 वर्ष पहले “संत वेणा स्वामी” जैसी विधवा महिला को मठपति का दायित्व देकर कीर्तन का अधिकार दिया।
महाराष्ट्र में समर्थ रामदास ने रामभक्ति के साथ साथ हनुमान भक्ति का भी प्रचार किया। हनुमान मंदिरों के साथ उन्होंने अखाड़े बनाकर महाराष्ट्र के सैनिकीकरण की नींव रखी। जो आगे चल कर राज्य स्थापना में बदली। संत तुकाराम ने स्वयं की मृत्यु पूर्व शिवाजी को कहा कि अब उनका भरोसा नहीं अतः आप समर्थ में मन लगाएँ। तुकाराम की मृत्यु बाद शिवाजी ने समर्थ का शिष्यत्व ग्रहण किया। समर्थ ने अपनी महान कृति ‘श्रीदासबोध’ से लेखन प्रारंभ किया। गुरु-शिष्य संवादरूप इस ग्रंथ में 200 विषयों पर विवेचन है।